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समाज की आधी आबादी स्त्रियों की होने के बावजूद एक स्त्री दूसरी स्त्री को सहारा देने आगे क्यों नहीं बढ़ती? घर-बाहर स्त्रियों की भीड़ होने के बावजूद मुसीबत में स्त्री अकेली क्यों पड़ जाती है? यह कटु सत्य है कि किसी पुरुष के द्वारा छले जाने के बाद भी उसे सहारा मिलता है, तो किसी अन्य पुरुष का ही… स्त्रियों से तो उसे स़िर्फ मिलता है तिरस्कार. स्त्री विमर्श में पुरुषों के क्रूर रवैये पर प्रश्न उछालनेवाले कभी स्त्रियों से भी पूछें कि एक स्त्री दूसरी स्त्री के प्रति कितनी संवेदनशील है?
बेटियों को पैदा होते ही मार डालना चाहिए, क्योंकि समाज में वे सुरक्षित नहीं हैं…” प्रभाती यह बयान सुनकर सन्न रह गई. उसकी नज़रें टीवी पर ही चिपक गईं. हद हो गई… एक बुज़ुर्ग महिला के कथन में ऐसा कच्चापन… इतनी निराशाजनक बात, वह भी सार्वजनिक तौर पर.
देख-सुनकर उसे अच्छा नहीं लगा. अफ़सोस!… इस संदर्भ में पॉज़िटिव सोच को स्थान देने की बजाय उनके बयान पर प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो गया था, जिनमें समाजसेवी-राजनैतिक गुट सभी बढ़-चढ़कर बोलते रहे और लगभग सभी बुराई का, असुरक्षा का ठीकरा प्रशासन के सिर पर फोड़ रहे थे.
एक मां अपने होंठों पर यूं निर्ममता भरे शब्द कैसे ला सकती है… प्रभाती को कितने ही प्रसंग याद आ गए, जब बेटे-बेटी के अंतर पर मां की ममता भारी पड़ी है. पिछले बरस की ही तो बात है. प्रभाती को भतीजी माया ने फ़ोन किया था. “काकी, मुझे बेटा हुआ है…” आमतौर पर इस तरह की ख़ुशख़बरी स्वयं प्रसूता द्वारा देने का चलन कम से कम भारत में तो नहीं है, इसीलिए प्रभाती को बड़ा अजीब-सा लगा. प्रभाती को लगा, जैसे माया कुछ और भी कहना चाह रही थी.
आख़िर सगी काकी है माया की. एक ही शहर में भतीजी हो, तो फ़ोन पर बधाइयां नहीं दे सकती थी, सो अस्पताल ही पहुंच गई. कमरे में एकांत मिलते ही माया से पूछा, “क्यों री, तू तो बेटा-बेटी में कोई फ़र्क़ नहीं मानती थी. फिर क्या हुआ? अगर बिटिया होती, तो क्या तू उसका स्वागत नहीं करती?”
“मत पूछो काकी, बेटी पैदा होती, तो क्या होता और क्या न होता? गोद भराई के बाद सासू मां ने मुझे इतना भयानक क़िस्सा सुनाया था कि उसके बाद मैं बेटी के जन्म के नाम से ही कांप जाती हूं. उनके अनुसार, हमारे कुल के पूर्वज बेटी पैदा होने पर बहुत बड़ा जलसा मनाते थे. फिर तीसरे दिन बेटी को मां का दूध भरपेट पिलवाकर, कन्या शिशु को दाई मां या घर की वृद्धा को सौंप दिया जाता था. वह स्त्री बच्ची के मुंह में मुट्ठी की मुट्ठी शक्कर भरती जाती थी, साथ में लगातार कहती जाती, “जा बिटिया जा… मुंह मीठा करके जा और अगले ही साल अपने भइया को जाकर भेज… जा… जा जल्दी जा… काकी, आज मैं इतनी ख़ुश इसीलिए हूं कि भगवान की दया से बच गई मेरी बिटिया…”
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उ़फ्! सिहर गई प्रभाती. माया की ख़ुशी का राज़ समझ में आ गया. माया की सारी ख़ुशी में बेटे के जन्म का तो कहीं ज़िक्र तक न था. वह तो अपनी उस बिटिया के बच जाने की कल्पना से ही आनंदविभोर है, जो उसकी कोख़ में आई ही नहीं थी, फिर भी बिटिया के जीवन के प्रति ऐसा चौकन्नापन… इतनी फ़िक्र? मां की ममता के प्रति प्रभाती नतमस्तक हो गई थी. माया की आंखों से प्रसन्नता के आंसू बहते देख प्रभाती भी रो पड़ी थी.
विचारों में डूबी प्रभाती बाल बना रही थी. विचारों से थककर मूड फ्रेश करने के लिए सोचा बालों में गुलाब का फूल लगा ले. हाथ में फूल लिए फिर विचारों में खो गई, तभी प्रभाती की उंगली में गुलाब का कांटा चुभ गया. वह तड़प उठी. बालों में फूल लगा वह आंगन के झूले पर बैठ गई. तभी पतिदेव भी वहीं आ पहुंचे. आते ही बोले, “अरे वाह प्रभाती, तुम्हारे बालों में फूल बहुत ही ख़ूबसूरत लगते हैं.” सुनकर प्रभाती मुस्कुराते हुए अपनी ही धुन में बोली, “हां, शायद इसीलिए कि फूल और स्त्री दोनों ही ईश्वर की अनुपम कृति हैं.”
“और पुरुष?”
“पुरुष? पुरुष निःसंदेह ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ… सर्वोत्तम कृति है.”
सुनते ही पतिदेव ठहाका लगाकर हंस पड़े. “ना प्रभाती ना… धीमे बोलो. पुरुषों का पक्ष लेकर नाहक ही स्त्रियों से दुश्मनी मोल ले रही हो.”
“आप क्या समझते हैं, स्त्री स्त्री की दोस्त होती है? काश, ऐसा होता, तो दुनिया कितनी अलग होती. हर घर में अमन-चैन होता, तो बाहर तलवारें क्यों चलतीं?” प्रभाती ने ठंडी सांस भरी और पति का हाथ पकड़ पास ही बैठा लिया.
प्रभाती गुमसुम हो उनका चेहरा देखने लगी… छल-कपट से परे निष्पाप चेहरा. फिर उसे अपने पिताजी, दादाजी, नानाजी, भाइयों के चेहरे याद आए. अपने गुरुजनों के चेहरे… मित्रों के चेहरे… राहगीरों के चेहरे… फेरी लगाते… गिट्टी और रेत-डामर से ज़र्द, स्याह चेहरे… मजदूरों के चेहरे और अपने-अपने संघर्षों से जूझते, हारते-जीतते तमाम पुरुषों के चेहरे गड्ड-मड्ड होने लगे.
उसे तो कोई पुरुष ख़राब नज़र नहीं आया. अगर हों भी, तो सोचने-समझनेवाली बात यह है कि दुनिया में अच्छे पुरुषों की भी कमी नहीं है… कमी नहीं है तिल-तिल मरते, घुटते हुए, दुनिया में विपरीत हालात से जूझते उन पुरुषों की, जो हर बहन-बेटी को पूरा मान-सम्मान देते हैं…. फिर ऐसी असुरक्षा की भावना के बीज बोने का काम एक स्त्री के द्वारा…?
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समाज की आधी आबादी स्त्रियों की होने के बावजूद एक स्त्री दूसरी स्त्री को सहारा देने आगे क्यों नहीं बढ़ती? घर-बाहर स्त्रियों की भीड़ होने के बावजूद मुसीबत में स्त्री अकेली क्यों पड़ जाती है? यह कटु सत्य है कि किसी पुरुष के द्वारा छले जाने के बाद भी उसे सहारा मिलता है, तो किसी अन्य पुरुष का ही… स्त्रियों से तो उसे स़िर्फ मिलता है तिरस्कार. स्त्री विमर्श में पुरुषों के क्रूर रवैये पर प्रश्न उछालनेवाले कभी स्त्रियों से भी पूछें कि एक स्त्री दूसरी स्त्री के प्रति कितनी संवेदनशील है?
प्रभाती को अनायास ही अपनी पड़ोसन सिद्धि चाची का क़िस्सा याद आ गया. उस दिन कीर्तन था उनके यहां… बीच में ही गैस के सिलेंडरवाले ने व्यवधान डाल दिया. वहीं कमरे में छोटा बेटा सिलेंडर की सील चेक करने लगा, तो मंजीरे बजाती चाची ज़ोर से बोलीं, “ना बेटा, सील-वील मत तोड़ियो. तू तो टंकी चौके तक सरकाकर निकल अइयो बाहर. बहू है ना, वो सब तोड़-ताड़कर रेग्युलेटर लगा लेगी.”
फिर भजन मंडली की तरफ़ देख बोलीं, “अभी हाल ही में अख़बार में पढ़ा था ना कि सील तोड़ते ही दुर्घटना हो गई थी… जान जोख़िम का काम है ये भी…”
प्रभाती ने स्पष्ट ऊंचे स्वर में बोल ही दिया था, “सच ही तो कह रही हो चाची… जोख़िम उठाने के लिए बहू है न!”
हालांकि उस एक सच की सज़ा प्रभाती को सौ उलाहने के रूप में मिली. हर घर की यही कथा है. बिरले परिवार ही ऐसे होंगे, जहां घर की स्त्रियों के आपस में मधुर संबंध होंगे. प्रभाती विचारों में ऐसी खोई कि उसे फ़ोन की घंटी सुनाई ही नहीं दी. फ़ोन उसके पति ने ही रिसीव किया और दरवाज़े तक आकर वहीं से पुकारा, “प्रभाती, तुम्हारे महिला मंडल से फ़ोन है…”
वह तत्परता से उठकर गई. मन ही मन यही सोच रही थी कि ज़रूर आज टीवी की न्यूज़ से क्षुब्ध होकर अर्जंट मीटिंग रखी गई होगी. रखना भी चाहिए, ऐसे निराशावादी विचार का विरोध होना ही चाहिए.
लेकिन प्रभाती ने जोश के साथ जैसे ही फ़ोन रिसीव किया, दूसरी तरफ़ कोई कोहराम-बवाल था ही नहीं. सपाट लहजे में नेत्री ने प्रभाती को आगामी मीटिंग की तारीख़, ड्रेस कोड और ‘ब्यूटी स्पेशल’ थीम बताई. सुनकर प्रभाती ने बड़ी मुश्किल से अपनी बौखलाहट पर नियंत्रण करते हुए पूरी बात सुनी.
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महिला मंडल की परंपरा है, करंट सब्जेक्ट चुनकर विचार-विमर्श करना. तो क्या ‘स्त्री सुरक्षा’ के विषय को नहीं लिया जा सकता था. विषय की गंभीरता देखकर ड्रेस, फैशन, मेकअप या रेसिपी आदि को कुछ देर के लिए परे नहीं किया जा सकता. साड़ियों और गहनों से भी बढ़कर इस दुनिया में बहुत कुछ है. क्या स्त्रियों का स्त्रियों की सुरक्षा के प्रति कोई उत्तरदायित्व है ही नहीं?
समाज, शासन व क़ानून की ज़िम्मेदारी का मुंह ताकते रहने की बजाय अगर स्त्रियां एकजुट हो जाएं, तो रणचंडी बन किसी भी राक्षस को मार गिरा सकती हैं, वरना जब तक आपस में लड़ती रहेंगी, शोषित होती रहेंगी.
अपने इस विचार से प्रभाती ख़ुशी से झूम उठी. दिनभर के विचार-मंथन के पश्चात् मिला यह विचार बिंदु उसे सच्चे मोती-सा क़ीमती लगा. मन में उम्मीद की किरण जगमगाने लगी. दिनभर की थकान मिट गई.
प्रभाती ने तय कर लिया कि वह अपने इस विचार को संपूर्ण स्त्री समाज तक पहुंचाने की पूरी कोशिश करेगी. विचारों के आदान-प्रदान से घर-बाहर शोषण का शिकार होती स्त्रियों की तमाम त्रासदियों का, उनके मन में बैठे भय व आतंक का कुछ तो हल निकलेगा. और जब स्त्री समाज की दुहाई दे, तब तो और भी ज़रूरी हो जाता है कि स्त्री स्वयं अन्य स्त्रियों के साथ अपने व्यवहार का मूल्यांकन भी अवश्य करे… सच मानिए, मन का आईना झूठ नहीं बोलेगा.
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नीता श्रीवास्तव
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